May 26, 2008

चिराग

दरवाज़े की तख्ती पे मेरा नाम भी हो,
और ओहदा "मालिक मकान " भी हो।
कुछ एक लाख की बात है मिल ही जायेंगे,
इसी आस कफ़न किसी दिन सिल ही जायेंगे।
ख़ुद नहीं तो, अपने "चिराग" में तेल तो होगा,
उसका खुशनसीबी से कम से कम मेल तो होगा।
यही सोच के सुबह जाता है, देर रात आता है,
ये आम आदमी पूरी ज़िंदगी काट जाता है।

May 25, 2008

तेरे इश्क में

हमतेरे इश्क मे इतने मजबूर हो गए,
साँस लेने को फ़िर मजबूर हो गए ।

बस में होता तो दूरियां मिटा देते,
बस दूरियों से ही तो मजबूर हो गए।

उन के इजहार का असर ज़रा देखिये,
हम इकरार करने पे मजबूर हो गए ।

जो खाब देखो तो इस शिद्दत से देखा,
खाब ज़िंदगी बनने पे मजबूर हो गए।

आज लिखते हैं तो कलम रुक सी जाती है,
मगर रुक रुक के लिखने पे मजबूर हो गए ।

हमतेरे इश्क मे इतने मजबूर हो गए,
साँस लेने को फ़िर मजबूर हो गए ।

तेरे इश्क में

बहुत अरसे से एक गुबार सा है उसके अंदर ,
एक खुशमिजाज इंसान बीमार सा है उसके अंदर।

किसी एक लम्हे की गलती थी , कि कुछ ऐसा हुआ,
जो कभी हँसता था , जार जार सा है उसके अंदर।

वक्त को कोसता है और वक्त की सोचता है,
न जाने अक्स क्यों लाचार सा है उसके अंदर।

लोग कहते हैं तेरे इश्क में ऐसा नही होता,
ये मानने का नहीं कोई आसार सा है उसके अंदर।

May 24, 2008

ज़रूरत

एक दूसरे को जानने की ज़रूरत नहीं समझी,
एक हुए ऐसे , साथ रहने की ज़रूरत नहीं समझी।
लगता था मोहब्बत के सैलाब में बह के आए हैं,
उनहोंने किनारा तक ढूँढने की ज़रूरत नहीं समझी।
फूल थे , खुशबू थी, बागबां था हरा भरा,
एक माली भी रखने की ज़रूरत नहीं समझी।
ख़ुद मुवक्किल , ख़ुद वकील, ख़ुद ही मुंसिफ बने,
बुजुर्गों से भी सलाह की ज़रूरत नहीं समझी।
अब तो आलम है के इतने करीब हैं दोनों,
मैंने उसकी ,उसने मेरी ज़रूरत नहीं समझी।

May 22, 2008

ग़मों के सैलाब

ग़मों के सैलाब हमें मिलने रोज़ आते हैं,
खुल के मिलते हैं ,हम मिल के बहल जाते हैं।
कोई पूछेगा पता मेरा तो बताना यारो,
हम तो मैखाने मैं अक्सर मिल जाते हैं।
कभी सोचा हैं आईने की ये तासीर है क्यों,
हर दफा अक्स अपने क्यों नज़र आते हैं।
तुझको भूले हुए ज़माना हो चला है मगर,
बहुत रोका इन्हें ये साँस अब भी आते हैं।
मेरी आंखों का है धोखा के दिल्लगी मेरी,
हर नए चेहरे में हमें वो ही नज़र आते हैं।

जी चाहता है

तेरा गम करने को जी चाहता है,

आँखें नम करने को जी चाहता है।

हर दफा भूल जो बारहा याद आए,

यादें दफ़न करने को जी चाहता है।

तू मेरे पास है कहीं गया ही नहीं,

ये भरम करने को जी चाहता है।

जो बंट चुकी है तमाम किश्तों में,

उम्र कम करने को जी चाहता है।

तेरा गम करने को जी चाहता है।

May 15, 2008

दुनिया

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हर शाम एक नया हुस्न सर उठाता है।
हर शाम एक हुस्न खो देती है।
किस लिए एक बेबस की लाज लुटती है,
जाने ये दुनिया कौन सा साज़ सुनती है।
धमाकों से ये दिल क्यों दहलता है,
बुतों के नाम पे इंसान क्यों जलता है।
कहीं लहू है कहीं सिसकियों की बरसातें,
याद आती हैं अमन ओ चैन की पुरानी बातें।
इस बेबस की फरियाद तो कोई सुन ले,
जो हुए फ़ना , उन मोतियों की याद तो कोई चुन ले।
कोई तो लाये वापिस राम राज यहाँ,
मस्जिदों में भी कभी तो हो पूजा पाठ यहाँ।
धुएँ मी सिमटा है आलम ,हैं ये कैसा आलम,
तर बतर है हर पत्ता, है ये कैसा मौसम ,
क्यों तुने ये बनाया मेरे खुदा मौसम।
हो जवाब तो लिखना मैं पढ़ लूंगा,
हो सका तो फिर दुनिया से भी लड़ लूंगा।

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तुम्हारी याद आए तो मैखाने की तरफ़ चल दिए , ना आए तो भी मैखाने की तरफ़ चल दिए , ज़िंदगी गुज़र जायेगी इसी तरह , ये सोच कर ...