May 22, 2008

ग़मों के सैलाब

ग़मों के सैलाब हमें मिलने रोज़ आते हैं,
खुल के मिलते हैं ,हम मिल के बहल जाते हैं।
कोई पूछेगा पता मेरा तो बताना यारो,
हम तो मैखाने मैं अक्सर मिल जाते हैं।
कभी सोचा हैं आईने की ये तासीर है क्यों,
हर दफा अक्स अपने क्यों नज़र आते हैं।
तुझको भूले हुए ज़माना हो चला है मगर,
बहुत रोका इन्हें ये साँस अब भी आते हैं।
मेरी आंखों का है धोखा के दिल्लगी मेरी,
हर नए चेहरे में हमें वो ही नज़र आते हैं।

जी चाहता है

तेरा गम करने को जी चाहता है,

आँखें नम करने को जी चाहता है।

हर दफा भूल जो बारहा याद आए,

यादें दफ़न करने को जी चाहता है।

तू मेरे पास है कहीं गया ही नहीं,

ये भरम करने को जी चाहता है।

जो बंट चुकी है तमाम किश्तों में,

उम्र कम करने को जी चाहता है।

तेरा गम करने को जी चाहता है।

तुम्हारी याद आए तो मैखाने की तरफ़ चल दिए , ना आए तो भी मैखाने की तरफ़ चल दिए , ज़िंदगी गुज़र जायेगी इसी तरह , ये सोच कर ...