May 22, 2008

ग़मों के सैलाब

ग़मों के सैलाब हमें मिलने रोज़ आते हैं,
खुल के मिलते हैं ,हम मिल के बहल जाते हैं।
कोई पूछेगा पता मेरा तो बताना यारो,
हम तो मैखाने मैं अक्सर मिल जाते हैं।
कभी सोचा हैं आईने की ये तासीर है क्यों,
हर दफा अक्स अपने क्यों नज़र आते हैं।
तुझको भूले हुए ज़माना हो चला है मगर,
बहुत रोका इन्हें ये साँस अब भी आते हैं।
मेरी आंखों का है धोखा के दिल्लगी मेरी,
हर नए चेहरे में हमें वो ही नज़र आते हैं।

4 comments:

शोभा said...

कभी सोचा हैं आईने की ये तासीर है क्यों,
हर दफा अक्स अपने क्यों नज़र आते हैं।
तुझको भूले हुए ज़माना हो चला है मगर,
बहुत रोका इन्हें ये साँस अब भी आते हैं।
बहुत सुन्दर

Mandeep said...

shukria shobha ji

am quiet new to blogging but will try to post some new post like these.

appki hosalafzai se aur achha likhne ki tamnna hui hai, blog pe aate rahiyega,

your comments and suggestion will be highly appreciated.

again thank you very much for your comments.

Asha Joglekar said...

बहुत अच्छा लिख रहे हैं
मेरी आंखों का है धोखा के दिल्लगी मेरी,
हर नए चेहरे में हमें वो ही नज़र आते हैं।
सुंदर !

Mandeep said...

Thanks for your comments and appreciation Asha Ji,

Keep Visiting....

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